- 4 Posts
- 30 Comments
भारत की स्वतंत्रता का जश्न मनाने जब भी हम लोग इकट्ठा होते हैं, मेरे जेहन में अकस्मात ही दुष्यंत कुमार की ये लाइनें कौंध जाती हैं-
ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छलए लोगो
कि जैसे जल में झलकता हुआ महलए लोगो
जो रोशनी का महल हमें आज दिखाई दे रहा है उसमें चमकने वाली रोशनी हमारे साथ एक छलावा है। ये गजल भारत की आजादी के बारे में और उससे जुड़ी त्रासदियों के बारे में भले ही बहुत कुछ बताए, आजादी के ख्याल के बारे में उतना नहीं बताती। जितना हम उनकी दूसरी गजल में जान पाते है-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहींए
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
दिल में सरफरोशी की तमन्ना लिए आजादी के मतवालों ने अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया, तो उन्हें कुछ सपने संजोने का भी हक था। उन्हीं सपनों के साथ भारत आगे बढ़ रहा है। उस आजादी के ख्याल के बारे में हम सोचने का वक्त तो निकाल ही सकते हैं।
यह सही है कि भारत ने 1947 में अंग्रेजी राज से मुक्ति पाई और राजनैतिक मुखौटे के रूप में आजादी पाई। पर यह अपने में पूर्ण विराम नहीं था। आजाद होने के साथ ही भारत के सामने कई चुनौतियां खड़ी थी। अब भारत अपनी प्रगति का पथ स्वयं तय कर सकता था। हुआ भी कुछ ऐसा ही देश ने आर्थिक आजादी की तरफ कदम बढ़ाए। लगभग 200 वर्षों के बाद औपनिवशिक जकड़न को तोड़कर देश आर्थिक तरक्की के रास्ते पर अग्रसर हुआ। इसके लिए पहले समाजवादी तर्ज पर पंचवर्षीय योजनाएं बनीं और नब्बे के दशक में 1991 से आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। भारत अब ग्लोबल विपेज की अवधारण में रच बसने लगा है। राजनैतिक स्तर भी हम प्रौढ़ावस्था में आ गए हैं, और हमारी अंतर्राष्ट्रीय हैसियत बन चुकी है तो थोड़ा सा थम के सोचने का समय भी है कि क्या हम कुछ भूल तो नहीं रहे। इस आजादी के दौर में कहीं हम उन पृष्ठों को खोलना तो नहीं भूल गए जो अभी तक अनछुए और अनखुले रह गए है?
आजादी दरअसल कोई ठहरी हुई प्रक्रिया नहीं है। जब हम इसकी एक खिड़की खोलते हैं तो नएपन का एहसास होता है, लेकिन जल्द ही यह भी गुलदस्ते में रखे फूलों की तरह बासी हो जाता है जिन्हें बदला जाना चाहिए। या फिर अभी और खिड़कियों को खोल देना चाहिए। हवा के और झोंके ऐसे है जिनका आना बाकी है। शायद यह एक वजह है कि दुनिया भर में आजाद और लोकतंत्र पर सवार देशों के साथ साथ उन देशों में भी आजादी के नए नए स्वप्न पलतेरहे हैं और देखे भी जाते रहे हैं जहां समाजवाद या साम्यवाद की तानाशाही को स्थापित करने की कोशिश की गयी है।
औरत की आजादी का मसला जो कई साल पहले शुरू हो चुका था वह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ज्यादा तेजी से उठा है। दुनिया के कई देशों में इस मसले पर चर्चाएं होती रही हैं और इस बात में कोई शक नहीं कि अरब देशों को छोड़ दिया जाए तो महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है। पहले की तुलना में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता मिली है। लेकिन इसी बीच जेंडर जस्टिस की प्रक्रिया में एक और मसला आ गया, जैसे समलैंगिकों की आजादी का।
आज यह भी एक बहस वाला मुद्दा है।
अदालतों से लेकर सड़कों तक इसके बारे में चर्चा और संघर्ष जोरों पर है। किसी तरह की अभिव्यक्ति की आजादी सैद्धांतिक रूप से भारत सहित दुनिया के कई देश के लोगों को मिली हुई है। लेकिन इसके साथ एक कड़वा सच यह भी है कि आज भी दुनिया के कई मुल्कों में अभिव्यक्ति के खतरे हैं जिसकी कीमत चुकानी पड़ती है। यानि सिद्धांतों की पोथी व्यवहार के धरातल पर धराशायी हो जाती है।
कई बार ऐसा होता है कि आजादी यानि मुक्ति की मंजिल पा लेने के बाद फिर से नई गुलामी की जंजीरें व्यक्ति, समाज और देश को जकड़ लेती है। इसीलिए आज दूसरी या तीसरी जंग-ए-आजादी की बात सुनाई पड़ती है। मिसाल के तौर पर 1949 में चीन एक नवनिर्मित स्वाधीन देश बना लेकिन सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वह फिर एक नई तरह की दासता में फंस गया। फिर जब वहां से निकला तो उदारवादी नीति अपनाने के कारण अवहां फिर से दमघोंटू वातावरण बनने लगा है। इसी तरीके की आजादी की तस्वीर फ्रांस की सरकार के फैसले में दिखती है जहां सरकार ने बुर्के पर प्रतिबंध लगाया है। एक तरफ फ्रांस सरकार का कहना है कि बुर्का औरत की आजादी को संकुचित करता है तो कुछ मुस्लिम संगठन इसे मुस्लिम औरतों के बुर्का पहनने के अधिकार पर प्रतिबंध मानते हैं। फ्रांस और अन्य यूरोपीय देशों में इसे लेकर तीखे विवाद हो रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि किसकी आजादी की अहमियत ज्यादा है? क्या यह आजादी बनाम आजादी का मसला है?
कहीं न कहीं आज भी हम पूर्ण रूपेण आजाद नहीं हो पाए हैं। अभिव्यक्ति और सोच की स्वतंत्रता कितनी है यह बताने की जरूरत नहीं है। सोच की स्वतंत्रता से मेरा अभिप्राय है विस्तृत सोच का दायरा। हमें सोच के दायरे और फलक को विस्तृत करने की जरूरत है। जग कोई धर्म, राजनीति, समाज, सम्प्रदाय और सीमा के नाम पर लड़ाई करने को आमादा हो जाता है, तब बड़ा अजीब लगता है। आज के दौर में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध को खोजना बड़ा आसान है, लेकिन एक इंसान का मिलना कठिन है। क्योंकि इंसान की सोच सिकुड़ गयी है जिसमें वह अपनी आजादी को भी अपनी गुलामी बना लेता है। लोग गुलाम बनकर भी खुश होते हैं जबकि यही सारी तकलीफों की जड़ है। एक बार इन बंदिशों से बाहर निकल आए तो समस्याओं का समाधान हो सकता है। इन बंदिशों से बाहर निकलते ही हम जिंदगी के असली स्वरूप से परिचित हो जाते हैं। एक व्यक्ति आज सबकुछ बनना चाहता है, लेकिन इंसान नहीं बनना चाहता है। अगर विचारों की स्वतंत्रता में जीने लग जाए तो किसी प्रकार की दासता का भय नहीं रह जाएगा। फिर न राजनैतिक प्रक्रियाएं दासता पैदा करेंगी, न धर्म मनुष्य को बांध पाएगा, न कानून स्वतंत्रता का रास्ता रोक पाएगा। व्यक्ति स्वतंत्र होगा लेकिन स्वच्छंद नहीं। यानि दुष्यंत कुमार को फिर नहीं पड़ेगा-
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए ।
Read Comments